लम्बी हो गयी थी अपनी सांसें,
मिट रही थी जाते जाते....
शहनाईयाँ थी लहरों की साथ साथ,
रो पड़ी थी वो भी किनारे आते आते....
बीच मझधार में बातों की आड़ में,
कतरा कतरा मेरा तड़पता मिला ....
अंश अंश से रूबरु था आँचल,
रुसवाइयों से पर हारता मैं चला....
अंधेड़ रात में, बंदिशों की दीवाल पे,
हर इक लकीर बनाता मैं मिला....
नब्जो के जाल में थी जिंदगी,
खुद ही हर नब्ज़ मिटाता मैं चला....
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