गुजरे साथ पहेलियों में फेर देते है कही....
ढूँढ नही पाते है उन पहलुओ की नमी,
अक्सर हम रो लेते है सिरहाने में कही....
शाम को तनहा हर दिन बहलाते है यही,
खो देते है खुद को तेरे तहखाने में कही....
बेपरवाह ही तखल्लुस हो गया है अबी,
मंजिलों से भी मुह फेर लेते है कही....