मुस्कुराती है मसरुफियत मेरी,
संगीनियत सी है अब ये पहेली ...
हर लम्हा है एक नज्म फेरी,
ऐसे ही जिंदा है मसरुफियत मेरी.....
इन शब्दों में कुछ ख़ास है,
अंतर्मन में आप ही आप है....
कारवां ये अभी भी अहम् है,
दिल्लगी में क्यूँ इतने वहम है....
तिनके सी दूर है अब चिंगारी,
किनारों पे क्यूँ मिलती है मंजिल हमारी....
No comments:
Post a Comment