Wednesday, October 28, 2009

अंतर्मंशा

इस संजीदगी से बहके है हम...
रातों से भी अब होती है बात,
नित घुलती है आपकी याद...
ये रात भी कितनी पागल है,
पल पल जोड़े है कैसे ख्याल..

मंशा तो मेरी है तुमसे ही सजती,
फिर न जाने क्यों है ऐसे हालात...
सांचों में भी मूरत नही मिलती,
इतनी हसीन है सूरत दिखती...

इस
संजीदगी से मैंने चाहा,
अंतर्मन में है बसा क्यूँ पाया...
इस कशिश को मैंने अपना बनाया,
बिन तेरे मै क्यों जी न पाया...

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प्रेम में सिंचित कुछ रचनाएँ मेरी भीगी स्याही से.......

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